जो अधिक थका होगा , वह भयभीत भी अधिक रहेगा 

जो अधिक थका होगा , वह भयभीत भी अधिक रहेगा 


इंसानों की प्रजाति अगर अनसोये कर्मठों में बदलती जा रही है , तो यह कोई उपलब्धि की बात नहीं। कम सो कर अधिक काम कर लेने वालों की आबादी रोज़ बढ़ रही है , बिना इस बात पर ध्यान दिये कि ज़्यादा काम करने और चतुराई से काम करने में अन्तर होता है। 


ढेरों लोग रोज़ बिस्तरों से थकान लेकर दफ़्तर पहुँचते हैं। मूड बुरा होता है , निर्णयात्मक क्षमता शिथिल। काम में फोकस लगता नहीं है और स्मृति भी जब-तब धोखा दिया करती है। अकुलाहट और चिड़चिड़ाहट बढ़ जाती हैं। फिर दोपहर होते-होते यह सब इतना बढ़ जाता है कि दफ़्तर में समस्याएँ पैदा होने लगती हैं। (अनेक शोध बताते हैं कि दफ़्तरों में काम करने वाले दोपहर तक थके और चिड़चिड़े हो जाते हैं। कारण बहुधा रात की नींद में कमी होना है। )


एक शोध तो यहाँ तक कहता है कि कम नींद के साथ काम करना थोड़ी शराब पीकर काम करने के समान है। लेकिन काम तो फिर काम है। सो लोग इसके लिए कैफ़ीन का सहारा लेते हैं। चाय ! कॉफ़ी ! और चाय ! और कॉफ़ी ! बार-बार चाय ! बार-बार कॉफ़ी ! इस तरह कैफीनीकृत पेयों का अतिशय सेवन तनाव का मानसिक स्तर बढ़ाते हुए रचनात्मक कार्यों में दखलअंदाज़ी करने लगता है। 


हम-सब साधारण हैं , इसलिए हमारी थकान भी साधारण घटना है। दिन में किया गया कार्य अगर कोई लहलहाता पेड़ है , तो उसकी उर्वर भूमि पिछले दिन की नींद मानिए। ऊसर से ऊँची हरियाली बहुधा नहीं फूटती : उसी तरह अनिद्रा से पीड़ित स्मार्ट-दक्ष कार्यकुशल कम ही हो पाते हैं। लेकिन रात की नींद को ठीक से पाने के रास्ते में रोड़े दो हैं। पहला रोड़ा है व्यक्तिगत सुख और विलास का। दिन-दिन काम में लगी युवाओं और प्रौढ़ों की आबादी मी-टाइम शाम को ही पाती है। ऐसे में शाम और रात के शुरुआती हिस्से को नींद और उसकी प्लानिंग में ख़राब नहीं करना चाहती। सोशल सर्किल का क्या होगा ! निजी मौजमस्ती कैसे चलेगी ? रोज़ तो गधों की तरह काम करते हैं ! तो क्या थोड़े मज़े भी न करें ! शाम-रात के पहले पाँच-छह घण्टे इस तथाकथित 'मज़े' के लिए क़ुर्बान हो जाते हैं। 


आधुनिक समाज में सामाजिक होने का अर्थ कोई संरचनात्मक काम करना नहीं होता , मज़े करना होता है। फिर दूसरा रोड़ा सामने आ जाता है। जितना जो थका होगा , उतनी उसकी इच्छाशक्ति कमज़ोर होगी। अब यह न सोचिएगा कि सोने के लिए इच्छाशक्ति नहीं चाहिए ! चाहिए , बिलकुल चाहिए ! कुछ-भी अनुशासनात्मक काम को इच्छाशक्ति के बिना किया ही नहीं जा सकता। सो जो मज़े में थकी शामें गुज़ारेंगे , वे थकी इच्छा-शक्ति वाले लोग होंगे। उनके लिए नींद के हित में त्वरित निर्णय लेना आसान कदापि नहीं होगा। 


'मैं जल्दी सो जाऊँगा' कहना आसान है , करना कठिन। इसे अमली जामा पहनाने के लिए समय-रूपी टॉमी को अनुशासन की ज़ंजीर पहनानी पड़ती है। अन्यथा टॉमी बस में नहीं आएगा , अपने मनके अनुसार आगे-आगे भागेगा। इसलिए घड़ी में नींद के लिए भी डेडलाइन उतनी ही आवश्यक हैं , जितनी काम के लिए। दफ़्तर से घर लौटने के बाद बितायी जा रही हैं शामों-रातों से अनावश्यक कामों को ईमानदारी से पहचानना होगा और उन्हें हटाना होगा। फिर जब बिस्तर पर जल्दी पहुँचना हो जाए , तब सोने से पहले कुछ बातें ज़रूर ध्यान में रखनी होंगी। 


स्मार्ट फ़ोन या लैपटॉप से पूरी तरह से दूरी बनानी होगी। इनसे निकलने वाला नीला प्रकाश निद्राकारी हॉर्मोन मेलाटोनिन का स्तर गिराता है , जिससे नींद आने में समस्या होती है। कुछ ऐसा पढ़ सकें , तो पढ़ें --- जो काम से एकदम असम्बन्धित हो। कमरे में तापमान यथासम्भव सुखद और सम हो। मद्धिम संगीत सुना जा सकता है। डायरी लिखी जा सकती है। ध्यान लगाया जा सकता है। साथ ही तनाव पैदा करने वाले मुद्दों और बहस से एकदम दूरी बनी रहे , तो बेहतर। 


'रूटीन' शब्द को सुनकर मैंने अनेक युवाओं को मुँह बिचकाते देखा है। लेकिन सत्य यह है कि रूटीन को साधना संसार का सबसे मुश्किल काम है। बल्कि संसार के सबसे बड़े काम रूटीन को नियमतः साध कर ही किये गये हैं। इस रूटीन-साधन में नींद का महत्त्व सर्वाधिक है। काम और मज़े दोनों की क्षमता से अधिक बात उनकी गुणवत्ता पर होनी चाहिए।
अनिद्रालु न काम में गुणवत्ता उत्पन्न कर पाता है , न सुख ही ढंग से ले पाता है। 


डॉ स्कंद शुक्ल जी का लेख है , 
मैं ऐसा मानता हूँ इसे आप जरूर पढ़ें।